यूँ देखें आकाश में ....
हवाएं उकेर जाती हैं ....
"कोरी कल्पनाएँ" ......
नील वर्ण गगन की सीमायें ...
करती हैं ....
कभी काली कभी सफ़ेद ...
रुई सी नम....
"कोरी कल्पनाएँ" ...
श्याम ढलते ही ...
रक्तवर्ण को यूँ उतार
कंठ में ...
घुल जाती हैं
आरती में नमाज़ में
कोरी कल्पनाएँ अब नहीं रहती ॥
"कोरी कल्पनाएँ"
देहरी का दीपक लगते ही ...
श्याम वर्ण शुन्य में...
विचारशून्य अंतर्मन में ॥
न जाने कहाँ गुम जाती हैं ...
आज कल से अबूझ ॥
निश्चल ,नितांत ...
"कोरी कल्पनाएँ "
-आकर्ष जोशी
My third eye will always be here for everybody for coffee time discussions ...from local bus stand notes to the theoury of Stphen Hawkins from my engineering text to platos music ...we will always be here to use most powerful technology of present era ..the web itself to mutually share thoughts...ideas ,theouries and culture ..... -AKARSH JOSHI
Wednesday, December 30, 2009
""ये ज़िन्दगी भला कौन है """?
कहते हैं पैमानों की इस भीड़ में ......
तुम भी एक पैमाना हो
वक़्त के गले उतरती
शायद कोई शराब है ज़िन्दगी .......
उल्लास ....उत्सव ...
यातना ,...पीड़ा के ताने बाने
निरंतर बुनते जाते लम्हे ...
उन्ही लम्हों का सार सूत्र .....
शायद कोई एक प्रहर है ज़िन्दगी.......
होटल की चाय ...पडोसी का अखबार...
बसों के धक्के ...यारो संग गप्पे ...
ये लफ्ज़ नहीं छोड़ते साथ .....
इन्ही लफ़्ज़ों से बनी ......
शायद एक छंदमुक्त कविता है ज़िन्दगी .....
व्यर्थ चिंताएं , आडम्बर ...
पैसे ........घर बार ...
छुटती ट्रेने,...
बुद्धू बक्से के सामने कहीं गुम जाते हैं ...
इस भीड़ में घुटती,गुमसुम बैठी ,
शायद कोई सांस है ज़िन्दगी.........
प्यार ,... लड़ाई ...गुस्सा
दोस्ती ...यारी ..मक्कारी ॥
जिंदादिली के धुंधलाते चित्र ॥
सन्डे टू सन्डे ....
इसी सन्डे का चित्रहार ....शायद यही है ज़िन्दगी ......
सफ़र में झाकते ..देखा है
खिड़की से कई दफा ...
रास्तों को ....हंसी झरोखों को ....
नितांत सार्थक लम्हों को ....
झाकनें को मना करती
शायद कोई हमसफ़र है ज़िन्दगी ......
तमाम रास्ते अपनाती
कड़वे मीठे लफ़्ज़ों की सड़क ...
दुविधा ...उलझन ..के
विचारशून्य चौराहे ....
विस्मयाधिबोधक वाक्यों से भरा
कौतुहल है.. जिज्ञासा है ज़िन्दगी
मौत है पूर्ण विराम ....
शायद प्रश्नचिन्ह है ज़िन्दगी ...
मृत्यु है अर्धांगिनी का आँचल ...
शायद प्रेयसी की बाहें है ज़िन्दगी
आकर्ष जोशी
आपका घनिष्ट...
तुम भी एक पैमाना हो
वक़्त के गले उतरती
शायद कोई शराब है ज़िन्दगी .......
उल्लास ....उत्सव ...
यातना ,...पीड़ा के ताने बाने
निरंतर बुनते जाते लम्हे ...
उन्ही लम्हों का सार सूत्र .....
शायद कोई एक प्रहर है ज़िन्दगी.......
होटल की चाय ...पडोसी का अखबार...
बसों के धक्के ...यारो संग गप्पे ...
ये लफ्ज़ नहीं छोड़ते साथ .....
इन्ही लफ़्ज़ों से बनी ......
शायद एक छंदमुक्त कविता है ज़िन्दगी .....
व्यर्थ चिंताएं , आडम्बर ...
पैसे ........घर बार ...
छुटती ट्रेने,...
बुद्धू बक्से के सामने कहीं गुम जाते हैं ...
इस भीड़ में घुटती,गुमसुम बैठी ,
शायद कोई सांस है ज़िन्दगी.........
प्यार ,... लड़ाई ...गुस्सा
दोस्ती ...यारी ..मक्कारी ॥
जिंदादिली के धुंधलाते चित्र ॥
सन्डे टू सन्डे ....
इसी सन्डे का चित्रहार ....शायद यही है ज़िन्दगी ......
सफ़र में झाकते ..देखा है
खिड़की से कई दफा ...
रास्तों को ....हंसी झरोखों को ....
नितांत सार्थक लम्हों को ....
झाकनें को मना करती
शायद कोई हमसफ़र है ज़िन्दगी ......
तमाम रास्ते अपनाती
कड़वे मीठे लफ़्ज़ों की सड़क ...
दुविधा ...उलझन ..के
विचारशून्य चौराहे ....
विस्मयाधिबोधक वाक्यों से भरा
कौतुहल है.. जिज्ञासा है ज़िन्दगी
मौत है पूर्ण विराम ....
शायद प्रश्नचिन्ह है ज़िन्दगी ...
मृत्यु है अर्धांगिनी का आँचल ...
शायद प्रेयसी की बाहें है ज़िन्दगी
आकर्ष जोशी
आपका घनिष्ट...
Sunday, August 2, 2009
Saturday, June 6, 2009
पूछा ज़रा ख़ुद से ........
आज बैठे एकांत में ।
पूछा ज़रा ख़ुद से
यूँ जीना क्या सही है ........?
उठने की इच्छा है ?"
या , अभी भी,
पलकों पे नींद सवार है ..........
ज़माने से जंग .........
ज़माने भर की चीजों के लिए
पूछा ज़रा ख़ुद से ..................
ढूंढ़ लिया ख़ुद को ?
या बुझी
नही प्यास तुम्हारी ?
अनंत अजेय प्यास ..................
वो प्यास ...
सर पे बैठी शराब..........
पूछा ज़रा ख़ुद से ?
उस नशे को छोड़
एक चाय का कप
पिया या नही ..............
वक्त के साथ भागते
आइना देखा या नही ...............
पूछा ज़रा ख़ुद से .....
सोचा ज़रा ''ख़ुद'' को .......
आकर्ष जोशी
आज बैठे एकांत में ।
पूछा ज़रा ख़ुद से
यूँ जीना क्या सही है ........?
उठने की इच्छा है ?"
या , अभी भी,
पलकों पे नींद सवार है ..........
ज़माने से जंग .........
ज़माने भर की चीजों के लिए
पूछा ज़रा ख़ुद से ..................
ढूंढ़ लिया ख़ुद को ?
या बुझी
नही प्यास तुम्हारी ?
अनंत अजेय प्यास ..................
वो प्यास ...
सर पे बैठी शराब..........
पूछा ज़रा ख़ुद से ?
उस नशे को छोड़
एक चाय का कप
पिया या नही ..............
वक्त के साथ भागते
आइना देखा या नही ...............
पूछा ज़रा ख़ुद से .....
सोचा ज़रा ''ख़ुद'' को .......
आकर्ष जोशी
Monday, February 2, 2009
परिंदा
आसमां की सैर से
थका एक परिंदा ,
जा बैठता है कहीं
बाँध अपने पंख
सोचता नही वो
कहाँ उतरा है आख़िर ......
किसी आलिशान महल पे
या किसी गरीब के झोपडे पे
नही सोचता वो
नीचे कोई पंडित रहता है .......
या हरिजन कोई .........
क्या वो सोचता है ??????
जहाँ बैठा हूँ
मन्दिर है या मद्जिद
क्या सोचता है?????
नीचे से आता संगीत
आरती है या नमाज़
क्या सोचता है ?
अन्दर बैठा मालिक
खुदा है या भगवान ?
वो ढूंढ़ता है बस आराम
सुकून घड़ी दो घड़ी
आज वो बैठा है
कृष्ण के घर में
कल जाकर बैठ जायेगा
अल्लाह के दर पे
और हम इंसान ?????????
पूछिये ख़ुद से..............
आकर्ष जोशी
B.E 1ST YEAR (ELECTRONICS)
UEC UJJAIN
थका एक परिंदा ,
जा बैठता है कहीं
बाँध अपने पंख
सोचता नही वो
कहाँ उतरा है आख़िर ......
किसी आलिशान महल पे
या किसी गरीब के झोपडे पे
नही सोचता वो
नीचे कोई पंडित रहता है .......
या हरिजन कोई .........
क्या वो सोचता है ??????
जहाँ बैठा हूँ
मन्दिर है या मद्जिद
क्या सोचता है?????
नीचे से आता संगीत
आरती है या नमाज़
क्या सोचता है ?
अन्दर बैठा मालिक
खुदा है या भगवान ?
वो ढूंढ़ता है बस आराम
सुकून घड़ी दो घड़ी
आज वो बैठा है
कृष्ण के घर में
कल जाकर बैठ जायेगा
अल्लाह के दर पे
और हम इंसान ?????????
पूछिये ख़ुद से..............
आकर्ष जोशी
B.E 1ST YEAR (ELECTRONICS)
UEC UJJAIN
Wednesday, January 28, 2009
हमज़ुबां
कहना चाहते हैं ........
परिंदे शाखों से
शाखें आसमां से ........................
एक लय मैं गाती बहती नदियाँ ,
अपने किनारों से ,
झरने पर्वतों से ........................
अपने अपने अर्थहीन शब्दों से भी ,
कभी नितांत मौन में भी ,
कितना सार्थक कह जाते हैं वे ,
''और हम ''''..........
व्यर्थ शब्द आडम्बरों में ,
उलझते उलझाते
समझ नही पते मर्म को ,
सादे से अर्थ को .......
सार्थ शब्दों को पाकर भी,
सतत चौकस ............................
एक आवरण में छुपाये ,
भावों संवेदन को, अपने अंतर्मन को ,
ज़ुबां होकर भी हमज़ुबां नही होते ,
ज़ुबां पाकर भी हमज़ुबां नही पाते..................
जनवरी 27, 2009
परिंदे शाखों से
शाखें आसमां से ........................
एक लय मैं गाती बहती नदियाँ ,
अपने किनारों से ,
झरने पर्वतों से ........................
अपने अपने अर्थहीन शब्दों से भी ,
कभी नितांत मौन में भी ,
कितना सार्थक कह जाते हैं वे ,
''और हम ''''..........
व्यर्थ शब्द आडम्बरों में ,
उलझते उलझाते
समझ नही पते मर्म को ,
सादे से अर्थ को .......
सार्थ शब्दों को पाकर भी,
सतत चौकस ............................
एक आवरण में छुपाये ,
भावों संवेदन को, अपने अंतर्मन को ,
ज़ुबां होकर भी हमज़ुबां नही होते ,
ज़ुबां पाकर भी हमज़ुबां नही पाते..................
जनवरी 27, 2009
Sunday, January 25, 2009
टीस
जब याद आता है ,
वो दिन ,
जब किस्मत ने ?
या भगवान् ने ?
समय ने ,परिस्थितियों ने ?किसने ....................?
किया खिलवाड़ मेरे साथ,
एक बच्चा पूछ लेता है मन से ?
कहती है टीस उसकी ,
किस किस ने नही ???
ढूंढ़ लो जवाब तुम ख़ुद ,
बचपना छोड़ वोह निकलता है
बिलखते जवाब की ओर,
जब मिलता है उसे जवाब,
बदल जाती है उसकी चोट ,
जख्मों में ,
झर उठता है बचपना सारा आखों में ,
मरहम फ़िर लगाती है संत्वानाएं हमदर्दियाँ ...........
कहता है मन उसका
अब ये घाव नही भरने दूंगा
नही भूलूंगा इतनी आसानी से और अगर कभी जाऊँ भूल
छिड़क दूंगा उनपर नमक ,
इसलिए ...........क्योंकि ......
पनपे मुझमे वह टीस वह दर्द
रो दू के दूँ 'बस बहुत हो चुका ,
इतना कह वोह हो गया कठोर
उसके बाद एक आंसू न टपका
पर हाँ
एक आग उसके अन्दर जल गई
कह उठा वोह ,
''और दिलाओ गुस्सा ''
अब बारी उसकी है
पटकने की परिस्थितियों को
कहने की समय को ''जरा बाद में आना''
खेलने की किस्मत के साथ
शायद इसलिए वोह नही चाहता ,
मिटने देना दर्द को,
बचपन तो अब गया नही आएगा कभी
पर छोड़ गया वोह कहीं सवाल
हुआ था क्या उसके साथ सही ?
क्या भूल उससे हो गई थी ?
टूट जाता है वोह सोचता है जब
कहता है बस अब पूर्ण विराम ......
दे दो अपनी कविता को .................
जंग नही हुई ख़त्म
अभी मुझे लड़ने जाना है ....................
-आकर्ष जोशी
वो दिन ,
जब किस्मत ने ?
या भगवान् ने ?
समय ने ,परिस्थितियों ने ?किसने ....................?
किया खिलवाड़ मेरे साथ,
एक बच्चा पूछ लेता है मन से ?
कहती है टीस उसकी ,
किस किस ने नही ???
ढूंढ़ लो जवाब तुम ख़ुद ,
बचपना छोड़ वोह निकलता है
बिलखते जवाब की ओर,
जब मिलता है उसे जवाब,
बदल जाती है उसकी चोट ,
जख्मों में ,
झर उठता है बचपना सारा आखों में ,
मरहम फ़िर लगाती है संत्वानाएं हमदर्दियाँ ...........
कहता है मन उसका
अब ये घाव नही भरने दूंगा
नही भूलूंगा इतनी आसानी से और अगर कभी जाऊँ भूल
छिड़क दूंगा उनपर नमक ,
इसलिए ...........क्योंकि ......
पनपे मुझमे वह टीस वह दर्द
रो दू के दूँ 'बस बहुत हो चुका ,
इतना कह वोह हो गया कठोर
उसके बाद एक आंसू न टपका
पर हाँ
एक आग उसके अन्दर जल गई
कह उठा वोह ,
''और दिलाओ गुस्सा ''
अब बारी उसकी है
पटकने की परिस्थितियों को
कहने की समय को ''जरा बाद में आना''
खेलने की किस्मत के साथ
शायद इसलिए वोह नही चाहता ,
मिटने देना दर्द को,
बचपन तो अब गया नही आएगा कभी
पर छोड़ गया वोह कहीं सवाल
हुआ था क्या उसके साथ सही ?
क्या भूल उससे हो गई थी ?
टूट जाता है वोह सोचता है जब
कहता है बस अब पूर्ण विराम ......
दे दो अपनी कविता को .................
जंग नही हुई ख़त्म
अभी मुझे लड़ने जाना है ....................
-आकर्ष जोशी
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