Monday, April 2, 2012

ख्वाबो की छाँव मैं बेठे ...
सिलसिले खड़े कर दिए ....

दोनों छोर  छाया सन्नाटा...
फिर भी हसीं


Friday, March 23, 2012

शिव की नगरी में ........क्षिप्रा के पावन तट पर ....नववर्ष के सूर्योदय को नमस्कार..................आप सभी को कोटि कोटि शुभकामनायें ................हर हर महादेव

Friday, November 5, 2010

फक्र का पुतला (महाज्ञानी लंका पति को समर्पित )

इस बार फिर शायद मै..
एक कागज़ का पुतला फूँक दूँ ....
और फिर फक्र महसूस करूँ ...

इस बार फिर शायद ...
उसके दस चेहरों को कर दूँ काला ....
अपने सौ चेहरों के लिए...
विजय तिलक ही चुनूं...
और फिर फक्र महसूस करूँ ..

उसका अहंकार ,.."अहंकार" था ...
मेरा अहंकार ...."गौरव"
उसका अहंकार चूर कर दूँ
और मेरा अहंकार बुनूं ....
 और फिर  फक्र महसूस करूँ ...

सच झूठ की लड़ाई ...
आज कोई महंगी नहीं ....
भीड़ भरे इस चौराहे  पर आकर
आज फिर उसकी हार पे  हंस लूँ.....
सच की विजय क्यूँ  चुनूं   ....
और फिर फक्र महसूस करूँ....

 

उसकी बुराई के अक्स हैं दस ...
मुझे जिज्ञासा नहीं इतनी ...
 चंद  लकड़ियाँ भस्म हो जाएँ ...
 बस आइना मै न चुनूं
और फिर फक्र महसूस करूँ ...


उसकी विद्वता चाहे महान हो
उसके आगे चाहे  झुकता आसमान  हो
यह कथा नहीं प्रथा है ...
अपनी विद्वता के आगे....
उसकी विद्वता  क्यूँ चुनूं ....
और फिर फक्र महसूस करूँ ....


उम्मीद है मेरी बात आप तक पहुंची हो ....

Monday, November 1, 2010

 "पता नहीं चला ..."



दूब पे चलते चलते ...
ऐसा छुआ ओस की बूंदों ने
पता नहीं चला ...
कांटे थोड़े चुभ गए ...

कुछ खट्टे कुछ खारे
कभी मीठे कभी कडवे
पता ही नहीं चला
लम्हे कुछ ...
आखों में बुझ गए ...

यादों का गुलिस्तान
कुछ ऐसा उगाया मैंने ...
चलते चलते पता ही नहीं चला
कब इतने बबूल उग गए ....

में जलता ...थोड़ा बुझता रहा
इस उम्मीद में
की कर दूँ उसका आशियाँ 
थोड़ा रोशन ...थोड़ा चमन
उसके इन्तेज़ार में
पता ही नहीं चला
कल रात
वो मेरा घर फूँक गए ...


ऐसा छुआ ओस की बूंदों ने
पता नहीं चला ...
कांटे थोड़े चुभ गए ...


_आकर्ष  जोशी

Wednesday, July 7, 2010

Coffee & Thoughts


Today I attempted 22nd time messing with my life .........it's not the anger or neither the thirst which brings you in frustration neither it is the island of pimples on face .... These matters are no doubt subjective...the special with my no 22 was nothing but something in order to be freak with respect to others like mine in society. And the outcome of this experiment was really awesome...."Who is best? everybody of us want to be the answer of this multiple choice......weather I am sufficiently colored or not i  want to be face of  the leading portrait of  picture that is something i wrote in my daily notebook on my JEE exam day....then i revised it upon eve of my engineering mechanics paper ..& got totally different conclusions but finally speaking the outcome is as random as our coffee mugs ...you  don’t know which one u used yesterday and also no idea about tomorrows mug, one will drink daily being irrespective of mug but being very specific about taste of coffee, so the cost, the looks, the colour,the material  none of the physical specifications decide weather coffee is delicious or not .That’s how your thoughts are just an philosophical replica of coffee ...they never look towards your million dollar hat ....

 -AKARSH

Wednesday, December 30, 2009

कोरी कल्पनाएँ .........

यूँ देखें आकाश में ....
हवाएं उकेर जाती हैं ....
"कोरी कल्पनाएँ" ......


नील वर्ण गगन की सीमायें ...
करती हैं ....
कभी काली कभी सफ़ेद ...
रुई सी नम....
"कोरी कल्पनाएँ" ...



श्याम ढलते ही ...
रक्तवर्ण को यूँ उतार
कंठ में ...
घुल जाती हैं
आरती में नमाज़ में
कोरी कल्पनाएँ अब नहीं रहती ॥
"कोरी कल्पनाएँ"


देहरी का दीपक लगते ही ...
श्याम वर्ण शुन्य में...
विचारशून्य अंतर्मन में ॥
न जाने कहाँ गुम जाती हैं ...
आज कल से अबूझ ॥
निश्चल ,नितांत ...
"कोरी कल्पनाएँ "


-आकर्ष जोशी

""ये ज़िन्दगी भला कौन है """?

कहते हैं पैमानों की इस भीड़ में ......
तुम भी एक पैमाना हो
वक़्त के गले उतरती
शायद कोई शराब है ज़िन्दगी .......


उल्लास ....उत्सव ...
यातना ,...पीड़ा के ताने बाने
निरंतर बुनते जाते लम्हे ...
उन्ही लम्हों का सार सूत्र .....
शायद कोई एक प्रहर है ज़िन्दगी.......


होटल की चाय ...पडोसी का अखबार...
बसों के धक्के ...यारो संग गप्पे ...
ये लफ्ज़ नहीं छोड़ते साथ .....
इन्ही लफ़्ज़ों से बनी ......
शायद एक छंदमुक्त कविता है ज़िन्दगी .....



व्यर्थ चिंताएं , आडम्बर ...
पैसे ........घर बार ...
छुटती ट्रेने,...
बुद्धू बक्से के सामने कहीं गुम जाते हैं ...
इस भीड़ में घुटती,गुमसुम बैठी ,
शायद कोई सांस है ज़िन्दगी.........


प्यार ,... लड़ाई ...गुस्सा
दोस्ती ...यारी ..मक्कारी ॥
जिंदादिली के धुंधलाते चित्र ॥
सन्डे टू सन्डे ....
इसी सन्डे का चित्रहार ....शायद यही है ज़िन्दगी ......



सफ़र में झाकते ..देखा है
खिड़की से कई दफा ...
रास्तों को ....हंसी झरोखों को ....
नितांत सार्थक लम्हों को ....
झाकनें को मना करती
शायद कोई हमसफ़र है ज़िन्दगी ......



तमाम रास्ते अपनाती
कड़वे मीठे लफ़्ज़ों की सड़क ...
दुविधा ...उलझन ..के
विचारशून्य चौराहे ....
विस्मयाधिबोधक वाक्यों से भरा
कौतुहल है.. जिज्ञासा है ज़िन्दगी


मौत है पूर्ण विराम ....
शायद प्रश्नचिन्ह है ज़िन्दगी ...


मृत्यु है अर्धांगिनी का आँचल ...
शायद प्रेयसी की बाहें है ज़िन्दगी


आकर्ष जोशी
आपका घनिष्ट...