फक्र का पुतला (महाज्ञानी लंका पति को समर्पित )
इस बार फिर शायद मै..
एक कागज़ का पुतला फूँक दूँ ....
और फिर फक्र महसूस करूँ ...
इस बार फिर शायद ...
उसके दस चेहरों को कर दूँ काला ....
अपने सौ चेहरों के लिए...
विजय तिलक ही चुनूं...
और फिर फक्र महसूस करूँ ..
उसका अहंकार ,.."अहंकार" था ...
मेरा अहंकार ...."गौरव"
उसका अहंकार चूर कर दूँ
और मेरा अहंकार बुनूं ....
और फिर फक्र महसूस करूँ ...
सच झूठ की लड़ाई ...
आज कोई महंगी नहीं ....
भीड़ भरे इस चौराहे पर आकर
आज फिर उसकी हार पे हंस लूँ.....
सच की विजय क्यूँ चुनूं ....
और फिर फक्र महसूस करूँ....
उसकी बुराई के अक्स हैं दस ...
मुझे जिज्ञासा नहीं इतनी ...
चंद लकड़ियाँ भस्म हो जाएँ ...
बस आइना मै न चुनूं
और फिर फक्र महसूस करूँ ...
उसकी विद्वता चाहे महान हो
उसके आगे चाहे झुकता आसमान हो
यह कथा नहीं प्रथा है ...
अपनी विद्वता के आगे....
उसकी विद्वता क्यूँ चुनूं ....
और फिर फक्र महसूस करूँ ....
उम्मीद है मेरी बात आप तक पहुंची हो ....
4 comments:
दीपावली का ये पावन त्यौहार,
जीवन में लाए खुशियां अपार।
लक्ष्मी जी विराजें आपके द्वार,
शुभकामनाएं हमारी करें स्वीकार।।
Thak u mam ...tonnes of diwali wishes .........
hiii nice post
thanks for following my poem blog that is http://seemywords-chirag.blogspot.com/
but now iam deleting this blog and will write this poems and new poems and stories on anotehr blog
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hope you will follow this blog now
thanks
very sharp meaning in a beautiful and striking poem :)
Hats off
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