Friday, November 5, 2010

फक्र का पुतला (महाज्ञानी लंका पति को समर्पित )

इस बार फिर शायद मै..
एक कागज़ का पुतला फूँक दूँ ....
और फिर फक्र महसूस करूँ ...

इस बार फिर शायद ...
उसके दस चेहरों को कर दूँ काला ....
अपने सौ चेहरों के लिए...
विजय तिलक ही चुनूं...
और फिर फक्र महसूस करूँ ..

उसका अहंकार ,.."अहंकार" था ...
मेरा अहंकार ...."गौरव"
उसका अहंकार चूर कर दूँ
और मेरा अहंकार बुनूं ....
 और फिर  फक्र महसूस करूँ ...

सच झूठ की लड़ाई ...
आज कोई महंगी नहीं ....
भीड़ भरे इस चौराहे  पर आकर
आज फिर उसकी हार पे  हंस लूँ.....
सच की विजय क्यूँ  चुनूं   ....
और फिर फक्र महसूस करूँ....

 

उसकी बुराई के अक्स हैं दस ...
मुझे जिज्ञासा नहीं इतनी ...
 चंद  लकड़ियाँ भस्म हो जाएँ ...
 बस आइना मै न चुनूं
और फिर फक्र महसूस करूँ ...


उसकी विद्वता चाहे महान हो
उसके आगे चाहे  झुकता आसमान  हो
यह कथा नहीं प्रथा है ...
अपनी विद्वता के आगे....
उसकी विद्वता  क्यूँ चुनूं ....
और फिर फक्र महसूस करूँ ....


उम्मीद है मेरी बात आप तक पहुंची हो ....

Monday, November 1, 2010

 "पता नहीं चला ..."



दूब पे चलते चलते ...
ऐसा छुआ ओस की बूंदों ने
पता नहीं चला ...
कांटे थोड़े चुभ गए ...

कुछ खट्टे कुछ खारे
कभी मीठे कभी कडवे
पता ही नहीं चला
लम्हे कुछ ...
आखों में बुझ गए ...

यादों का गुलिस्तान
कुछ ऐसा उगाया मैंने ...
चलते चलते पता ही नहीं चला
कब इतने बबूल उग गए ....

में जलता ...थोड़ा बुझता रहा
इस उम्मीद में
की कर दूँ उसका आशियाँ 
थोड़ा रोशन ...थोड़ा चमन
उसके इन्तेज़ार में
पता ही नहीं चला
कल रात
वो मेरा घर फूँक गए ...


ऐसा छुआ ओस की बूंदों ने
पता नहीं चला ...
कांटे थोड़े चुभ गए ...


_आकर्ष  जोशी