"पता नहीं चला ..."
दूब पे चलते चलते ...
ऐसा छुआ ओस की बूंदों ने
पता नहीं चला ...
कांटे थोड़े चुभ गए ...
कुछ खट्टे कुछ खारे
कभी मीठे कभी कडवे
पता ही नहीं चला
लम्हे कुछ ...
आखों में बुझ गए ...
यादों का गुलिस्तान
कुछ ऐसा उगाया मैंने ...
चलते चलते पता ही नहीं चला
कब इतने बबूल उग गए ....
में जलता ...थोड़ा बुझता रहा
इस उम्मीद में
की कर दूँ उसका आशियाँ
थोड़ा रोशन ...थोड़ा चमन
उसके इन्तेज़ार में
पता ही नहीं चला
कल रात
वो मेरा घर फूँक गए ...
ऐसा छुआ ओस की बूंदों ने
पता नहीं चला ...
कांटे थोड़े चुभ गए ...
_आकर्ष जोशी
2 comments:
अति सुन्दर....
many thanks for going through it ....
Post a Comment